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यदि पुलवामा का आतंकी हमला आतंकवादियों के नापाक इरादों और भारतीय सीआरपीएफ के शहीदों की शहादत तक सीमित रहता तो इस उपन्यास 'सर्जिकल स्ट्राइक' के अस्तित्व में आने की जरूरत ही नहीं थी। लेकिन आतंक की लपटें जब राजनीति से आक्सीजन लेकर देश और इसके सामाजिक तानेबाने को निगल जाने पर आमादा हों, तो उपन्यास के नायक आजीवक बाबू का मैदान-ए-जंग में उतरना और इसके पर्दाफाश के लिए सर्जिकल स्ट्राइक समय की मांग बन जाती है। इतना ही नहीं, देश के नागरिकों का भेड़ यानी भीड़ बन जाने...दोहन की सामग्री बन जाने और 'प्रोडक्ट फॉर सेल' की संस्कृति में सिमट जाने के विरुद्ध जंग, नायक की बाध्यता हो जाती है।
एक बड़े जनसमूह का रोबोट में तब्दील हो जाना...रिमोट कट्टरपंथियों की मिल्कियत और साम्प्रदायिकता का बेलगाम हो जाना...संवैधानिक संस्थाओं का वेंटिलेटर का मोहताज और मीडिया का 'इंडियन मीडिया परिमियर लीग' हो जाना...मात्र अपने आका के सपनों को रंगीन बनाने की बैटिंग-बॉलिंग करना, ऐसी इन्द्रधनुषी सियायी छत्रछाया में एक