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...आदिवासी साहित्य विमर्श की धारा हिन्दी में दलित-विमर्श के उपरान्त नजर आती है। 1980-85 से आदिवासी साहित्यिक गतिविधियाँ महाराष्ट्र में प्रस्फुटित हुईं और आगे भारतवर्ष में फैलीं। जैसे दलित-साहित्य पहले महाराष्ट्र में मराठी साहित्य के भीतर नयी पहचान लेकर आया और मराठी साहित्य के आयाम को नवीनतम दिशा दी। इसका परिणाम यह हुआ की साहित्यकारों के साहित्य की दशा-दिशा में आमूलचूल परिवर्तन आया। जिसमें आम आदमी, दलित,शोषित, दीन-हीन की अभिव्यक्ति साहित्य की एक अनिवार्यता बन गई।
आज देखा जाय तो भारतवर्ष में साहित्यिक स्थित्यंतर नजर आता है। आदिवासी साहित्य भी इसका एक असाधारण बिन्दु माना जा सकता है। बाह्य आक्रमण तथा नैसर्गिक आपत्ति की वजह से सिंधु नदी के तटीय प्रदेश से विस्थापित जन-जन को ही 'आदिवासी' या 'मूलनिवासी' कहा जाता है। उन्होंने अपने को देश-देशांतर से दूर रखा यथा–पहाड़ों, जंगलों को अपना बसेरा बनाया। इसका परिणाम यह हुआ की वे किसी भी देश की मुख्यधारा से कटे-कटे से रह गए। उनका ना तो किसी से किसी भी क्षेत्र में आदान-प्रदान हुआ ना सम्बन्ध बन पाया। वे अपनी संस्कृति, संस्कार, विधि, बोली-भाषा, रहन-सहन, तीज-त्योहार और आचरण से पूर्णत: देशीय बने रहे। उन्हें इक्कीसवीं शती की चकाचौंध ने कभी भी अपनी ओर आकर्षित नहीं किया। इसकी वजह थी मात्र शिक्षा। इक्कीसवीं शताब्दी में भारतवर्ष में कहीं-कहीं देखा जा रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र से लगाव उनके अन्दर जीवन के प्रतीत सतर्कता बना रहा है और वे पढ़-लिखकर कुछ करने की जिज्ञासा को सँजोकर शिक्षा में उन्नत हो रहे हैं। अत: इक्कीसवीं शताब्दी के भीतर साहित्य, समाज, शिक्षा तथा विकास की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं।
इसी पुस्तक से...
...तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाजों में रोज घटने वाली हिंसा की घटनाओं का क्या अर्थ लिया जाए? यथार्थ दृष्टि से इसका अध्ययन करें, तो सच और झूठ का पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। आदिवासी भाषाओं का अध्ययन इसी दृष्टि से भी बेहद आवश्यक हो जाता है। इसी से उसकी सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का महत्त्व समझा जा सकता है। ऑक्सफोर्ड इसकी परिभाषा देता है– "एकाधिक परिवारों से बने परम्परागत समाज का वह वर्ग जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषिक और रक्त के स्तर पर बँधे हों, और जो क्षेत्रीय नेतृत्व के अधीन रहते आए हों।" जोर्ज पीटर कहते हैं, "यह एक सामाजिक समूह होता है, जिसकी एक अलग भाषा होती है, तथा विशिष्ट संस्कृति एवं एक स्वतन्त्र राजनैतिक संगठन होता है।"...
विश्व में आदिवासियों का अपना एक अलग पहचान है, जिनकी अपनी अलग संस्कृति है, अलग भाषा है। भारत में यह वर्णव्यवस्था सम्बन्धी समाज से पृथक है। इसी से उनकी संस्कृति, परम्परा, आस्था, विश्वास आदि अन्य भारतीय समाजों से भिन्न है। भले ही वे राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, लेकिन उनकी अपनी समाज-व्यवस्था होती है, जिनमें अनुशासन अपनी तरह के होते हैं।
...आज विश्व-पटल पर जब यह अपनी विकास-यात्रा के पथ पर अग्रसर है, तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि इस भाषा का अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सम्बन्ध कैसा है? इसी से उसकी उदारता का आंकलन किया जाना चाहिए। यह देखना होगा कि इसके चलते कहीं अन्य भारतीय भाषाएँ अथवा बोलियाँ मर तो नहीं रहीं? भाषा खोने का अर्थ है–किसी एक संस्कृति का खो जाना। भाषा अपने साथ परम्परा, इतिहास, सोचने-विचारने और जीवन-दृष्टि का ढंग लेकर चलती है। भाषा समग्र जीवन-शैली को लेकर चलती है। आदिवासी समाज एक सामूहिक विचारधारा पर आधारित होकर चलता है। भाषा इसी का प्रतिनिधित्व करती है। यदि हमारी भाषाएँ खो जाती हैं, तो इन सब का भी खो जाना निश्चित है, जो कि अत्यन्त दु:खद विषय होगा।
इसी पुस्तक से...