Dalit Sandarbh aur Hindi Upanyas (Dalit aur Gair Dalit Upanyaskaron ke tulnatamak pariprekshaya Me) दलित सन्दर्भ और हिन्दी उपन्यास
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By Dileep Mehra
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सन् 1492 में कोलंबस ने अमरिका खंड को ढूँढ़ा, तो वास्कोडीगामा नामक एक साहसिक कप्तान सन् 1498 में केरल के कालिकट बन्दर पर उतरा। उसके बाद पोर्टुगीज़, फ्रान्सीसी, अँग्रेज आदि व्यापारी भारत आने लगे और शनैः-शनैः व्यापार के बहाने उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी राजनीतिक शक्ति को बढ़ाना शुरू किया। पोर्टुगीज (फिरंगी) लोगों के उपनिवेश दीव, दमण, गोवा में सिमटकर रह गए। अँग्रेजों और फ्रांसिसों के बीच टकराहटें चलती रहीं। अन्ततः अँग्रेज गर्वनर क्लाइव ने फ्रान्सीसी डूपले को पराजित किया और इस प्रकार भारत में अँग्रेजी सत्ता की नींव पड़ी। इन अँग्रेजी शासकों, अधिकारियों और व्यापारियों के साथ ईसाई पादरी (धर्मगुरु) भी धर्म-प्रचार हेतु आते थे। ईसाई धर्म के प्रचार हेतु आए इन पादरियों ने हिन्दू धर्म के कतिपय छिद्रों को लेकर हमले शुरू किए, जिसके चलते भारत की बहुत-सी निम्नवर्गीय-निम्नवर्णीय दलित जातियों में धर्म-परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई। इनमें विशेषतः एस.सी. (Scheduled Castes) और एस.टी. (Scheduled Tribes) वर्ग की जातियों का समावेश होता है। हिन्दू धर्म में शास्त्र, परम्परा और रूढ़ियों के बहाने इन जातियों पर कई सारी निर्योग्यताएँ थोपी गई थीं और इनका कई प्रकार का शोषण चल रहा था। धर्म और शास्त्र के नाम पर बहुत से अमानवीय और अधार्मिक कार्य होते थे। उदाहरण के तौर पर यदि सती-प्रथा को ही लें तो उसमें पति की मृत्यु के बाद विधवा को सती बनाया जाता था, अर्थात् उसे पति की ही चिता पर बिठाकर जिन्दा जला दिया जाता था। कितना बर्बर, कितना नृशंस। किसी स्त्री को जिन्दा जला देना और वह भी धर्म के नाम पर। इसी तरह का दूसरा अमानवीय उदाहरण– हम कुत्ते-बिल्लियों को तो पाल लेते हैं, उन्हें छूते भी हैं, प्यार से सहलाते भी हैं। लेकिन कुछ दलित जातियों के लोगों को जिन्हें अस्पृश्य माना गया था, उनके स्पर्श-मात्र से हम अपवित्र हो जाते हैं। मनुष्य जाति का कितना बड़ा अपमान। इसी प्रकार के बहुत-से कुरिवाज धर्म और शास्त्र के नाम पर चलते थे, जैसे कि शिशु विवाह, बालिका विवाह, वृद्ध विवाह, दहेज-प्रथा, आदि-आदि। शूद्रों को शिक्षा का अधिकार नहीं था, उनको सार्वजनिक स्थानों से पानी भरने का अधिकार नहीं था, मृत्यु के बाद अग्नि-संस्कार का अधिकार नहीं था, उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर अन्तिम क्रिया सम्पन्न कराने का भी अधिकार नहीं था, उनको जमीन बसाने का अधिकार नहीं था, कीमती वस्त्र और धातु सोना-चाँदी-पीतल-बाम्बा-काँसा आदि खरीदने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था, उन्हें उच्च जातियों के खिलाफ न्याय के लिए गोहार लगाने का भी अधिकार नहीं था। ऐसी कई-कई निर्योग्यताएँ उन पर थोपी गई थीं और ये सब धर्म और शास्त्र के नाम पर। लिहाजा ये दलित जातियों के लोग जब बाहरी सम्पर्क में आए और दूसरे धर्म के लोगों ने जब उनको वास्तविकता का आईना दिखाया तो सदियों से प्रताड़ित, पीड़ित, अत्याचारित इन लोगों में धर्म-परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई। पिछली कुछ शताब्दियों में मोटे तौर पर यह प्रक्रिया दो बार हुई–मुसलमानों के आगमन पर और ईसाई लोगों के आने पर। उस समय बहुत-सी दबी-कुचली जातियों के लोगों ने क्रमशः इस्लाम और ईसाई धर्म अंगीकार किया।